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समाजवाद की मूल अवधारणा है समानता। समाजवाद मानता है कि एक व्यक्ति और दूसरे में असमानता नहीं होनी चाहिए। समाजवाद की यह स्थापना सुनने समझने में तो आदर्श लगती है, परंतु सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि यह व्यवस्था, जिसे प्राप्त करने के लिए हम मरे जाते हैं, पूरी तरह से अप्राकृतिक है। प्रकृति कभी भी समानता को स्वीकार नहीं करती। उदाहरण के लिए पृथ्वी पर असंख्य मानवों में से कोई भी दो व्यक्ति समान नहीं होते। अपने ही शरीर में दोनों आंखों में समानता नहीं है। प्रसिद्ध कहावत भी है कि "पाँचों उंगलियाँ बराबर नहीं होतीं"। असमानता की यह प्राकृतिक व्यवस्था हमारे पूर्वजों से छिपी नहीं थी। इसका प्रतिकार करने के विरुद्ध उन्होंने इसे सहज स्वीकार किया तथा उसके अनुसार ही जीवन के हर क्षेत्र को विकसित किया।प्रकृति प्रदत यह असमानता हमें कला के हर क्षेत्र में दिखाई देती है। चित्रकार जानते हैं कि एक रंग की परावर्तन क्षमता दूसरे रंग से अलग होती है। मूर्तिकारों को भी अच्छी तरह से पता होता है कि दो पत्थर कभी एक से नहीं होते। उसी प्रकार से ऋषियों ने अध्ययन करने पर पाया कि प्राकृतिक स्वर व्यवस्था भी असमानता पर ही आधारित है। प्राचीन काल में ही हमने खोज निकाला था कि सभी स्वरों के स्थान अलग-अलग श्रुत्यांतर पर होते हैं (चतुश्चतुश्चतुश्चैव षड़ज मध्मपंचमौ...)। अर्थात् षड़ज स्वर से ऋषभ स्वर की दूरी जितनी है, ऋषभ से गंधार की दूरी उतनी ही नहीं है। यह स्वर व्यवस्था मानव निर्मित नहीं है और इसमें बदलाव संभव नहीं है। प्राचीनकाल से आज तक हमने उसी प्राकृतिक स्वर व्यवस्था का पालन किया है। इसी कारण भारतीय संगीत प्रकृति से जुड़ा हुआ है, और हमारे मानस पर दीर्घकालिक तथा आध्यात्मिक प्रभाव छोड़ने की क्षमता रखता है। हमारा स्वर सप्तक, प्राकृतिक असमानता को पूरा आदर देते हुए ही स्थापित किया गया है। यही मूल कारण है कि हम बार बार अपने आधार स्वर अर्थात् षड़ज को नहीं बदलते। एक बार तानपुरे पर षड़ज स्थापित कर दिया, तो पूरे कार्यक्रम में उसमें बदलाव नहीं किया जाता। भारतीय समाज मानस में भी इसे बड़ी आसानी से स्वीकृत किया गया है। भारतीय संगीत के कार्यक्रम में उपस्थित श्रोताओं में से कोई भी मंचासीन कलाकार से यह अनुरोध करता हुआ नहीं पाया जाता कि वह इस आधार षड़ज को बहुत देर से सुन रहा है, अब तानपुरा किसी अन्य स्वर में मिलाया जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में, स्वरों के बीच समाजवाद लाने की कोशिश हमारे संगीत में नहीं की जाती।पाश्चात्य संगीत में यह व्यवस्था नहीं मानी जाती। उनके यहाँ स्वरों में समानता लाने का प्रयास किया जाता है, जो कि अप्राकृतिक है। ऐसा नहीं है कि इस बात को वे जानते-समझते नहीं हैं। उन्होंने अपने सप्तक को "Equally tempered scale" कहा है। सप्तक के सभी स्वरों के मध्य Equality यानी समानता लाने का प्रयास किया जाता है। इस कारण से उनके द्वारा स्थापित सप्तक में एक स्वर से दूसरे स्वर का स्थान समान दूरी पर स्थित है। पियानो या गिटार पर स्थापित C स्वर से जितनी दूरी C# स्वर की है, उतनी ही दूरी D स्वर से D# स्वर की होती है। अब यह समानता लाने के लिए भले ही उन्हें किसी स्वर का सर काटना पड़ता है तो किसी की टाँगें। अब इस व्यवस्था के कारण प्राकृतिक स्वर व्यवस्था को तिलांजलि दे दी जाती है। दूसरे शब्दों में, स्वरों के बीच समाजवादी व्यवस्था लागू कर दी जाती है।चेतन जोशी
Posted in: Education
Topics:
indian classical, theory
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